माथुर द्वारा नैनीताल से आई सच्ची कहानी बिल्कुल अलग है।
पहाड़ी के सबसे ऊपरी सिरे पर पहुंच मैंने नीचे झांका, तो पाया कि थोड़ी दूरी पर रास्ता दोराहे की शक्ल में दो शाखाओं में बट गया था। एक शाखा पहाड़ी के बीच बाई ओर मुड़कर चीड़ के घने जंगलों में खो गई थी, और दूसरी सामने एक छोटे –से गांव की ओर, जो तलहटी में कहीं पहाड़ी आंचल में छुपी सी थी। समझ नहीं आता था कि कौन सा रास्ता चुना जाए। पक्की सड़क को छोड़ सुबह से करीब 8 मील पैदल चल चुके थे हम लोग, और अपनी मंजिल, बेतालघाट के डाक बंगले, को पहुंचने के लिए शायद, इतना ही और रास्ता तय करना था
मेरा नौकर शिव प्रसाद और सामान लादे नेपाली कुली पीछे रह गए थे, यह सोच कर कि शायद किसी कूली को ही सही रास्ता मालूम हो। मैं चीड़ के एक पेड़ के नीचे बैठकर उनका इंतजार करने लगा। नैनीताल जिले का यह आंतरिक क्षेत्र बहुत ही मनोहारी था
गांव के बाहरी सरहद की ओर 14 से 16 बरस की उम्र का एक लड़का ढोर चरा कर लौट रहा था। शिव प्रसाद ने पहले उसी से बेतालघाट के डाक बंगले का रास्ता पूछा। यह देख कर हम बड़े असमंजस में पड़े की डाक बंगले का नाम सुनते ही लड़के का रंग पीला सा पड़ गया।
गांव में घुसने पर एक बूढ़ा दिखाई दिया। जब उससे रास्ता पूछा गया, तब वह हमें लौटने की सलाह देने लगा। समझ में नहीं आ रहा था कि मामला क्या है? मेरे कहने पर शिव प्रसाद ने बूढ़े से पूछा कि क्या गांव में कोई पढ़ा–लिखा बुजुर्ग आदमी है, तो उसने बताया कि गांव के एक छोर पर अवकाश– प्राप्त सूबेदार रामसिंह रहते हैं।
गांव के एक किनारे सूबेदार साहब का दो मंजिला पक्का घर था। सूबेदार मकान के सामने ही एक चारपाई पर बैठे कुछ लिख रहे थे। पास जाकर मैंने उनसे पूछा,” क्या आप ही सूबेदार रामसिंह हैं?
उन्होंने मेरी और कुछ देर घूर कर देखा और सिर हिलाकर कहा,” हां, कहो क्या काम है?
” क्या आप बताएंगे की बेतालघाट डाक बंगले को रास्ता किधर से निकलता है? मैंने पूछा।
” कहां से आए हो?”
” नैनीताल से।“
उन्होंने किसी को दो गिलास चाय लाने को कहा फिर मुझसे पूछा,” क्या तुम सर्दी की छुट्टियों में इस इलाके में घूमने आए हो? सामान और बाकी साथी किधर है?”
मैंने हंस कर उन्हें उत्तर दिया,” मैं यहां घूमने नहीं, बल्कि सरकारी काम से आया हूं। मैं यहां का नया सब– डिवीजनल मजिस्ट्रेट हूं?”
सूबेदार साहब कुछ सकुचाते हुए बोले,” अगर आप बुरा ना माने तो मैं सलाह दूंगा कि आप रात बेतालघाट डाक बंगले में ना बिताएं, पास हीं के गांव में ठहरे। वहां पटवारी और खंड विकास अधिकारी रहने का कुछ न कुछ अच्छा प्रबंध अवश्य कर देंगे।“
” डाक बंगले में क्या परेशानी है?”
” बात यह है कि डाक बंगला गांव से 2 मील दूर, एकांत में है और अफवाह है कि वह भुतहा है।“
मैं बड़े चक्कर में पड़ गया। मैं अपने साथ तंबू भी नहीं लाया था और दिसंबर में यहां इतनी ठंड पड़ती थी कि रात को कहीं बाहर सोने का प्रश्न ही नहीं उठता था। अगर मैं डाक बंगले की बजाय पास के गांव में ठहरता, तुम मुझे खंड विकास अधिकारी और पटवारी की सहायता लेनी पड़ती। अतः मैंने मन ही मन निश्चय किया कि डाक बंगले में ही ठहर लूंगा।
शाम के 4:15 बजे डाक बंगले पर पहुंचा। कदम रखते हैं मुझे ऐसा लगा कि किसी ने मेरे सारे शरीर को जोर से झकझोर दिया हो। एक ही छोटा सा कमरा था, जिसकी दीवारों पर बरसों से पुताई नहीं हुई थी। कहीं–कहीं प्लास्टर भी उखड़ा हुआ था। बायीं ओर की दीवार से सटी काली पड़ी अंगीठी थी।
दाई ओर एक ऊंचा लोहे का वर्णहिन पलंग था। कमरे के बीच 40 वर्ष पूर्व के फैशन की एक गोल मेज , दो कुर्सियां और एक लंबी आराम कुर्सी पड़ी थी। इन सब की हालत खस्ता थी। कमरे के पीछे की दीवार में एक दरवाजा साथ लगे गुसल खाने में खुलता था, टूटे हुए शीशे वाला दरवाजा बाहर खुलता था। कमरे में कोई खिड़की नहीं थी। अंधेरा सा था। सारे वातावरण में अजीब भयावहता और घुटन थी।
मुख्य बंगले में मैं बिल्कुल अकेला था, हालांकि काफी दूर पीछे बने रसोईघर और साथ लगे हुए क्वार्टरओं में मेरे नौकर शिव प्रसाद और कुलियों ने डेरा डाल रखा था। जैसे तैसे मैंने कोई 9:00 बजे रात का खाना खाया। बाहर का दरवाजा बंद कर, लालटेन जली छोड़, रेडियो लगाया और उसको सुनते हुए पलंग पर लेट कर सोने की चेष्टा करने लगा। पर मेरी आंखों की नींद बिल्कुल गायब थी।
सहसा मुझे लगा कि कमरे में अब मैं अकेला ही हूं। जैसे कोई दूसरा आदमी भी घुस आया हो। लेकिन, कौन था वह? चेष्टा कर भी मैंने नहीं देख पाया। क्या यह हवा थी या कोई दरवाजा तोड़कर अंदर आने की कोशिश कर रहा था? और वे आवाजें….. क्या वे हवा की सनसनाहट– बहरी सिटीओं की आवाज थी या कोई नारी कंठ की चित्कार…
कुछ भी हो, यह अब स्पष्ट लग रहा था कि मैं किसी बड़े खतरे में फंस गया हूं। मेरे हाथ पैर कांपने लगे और इतनी ठंड होने पर भी माथे पर पसीना उभर आया।
सारी रात में डर के मारे एक पल भी ना सो सका। पिछले दिन भर की थकान और रात को आराम न मिलने के कारण बड़ी कमजोरी महसूस हो रही थी। मन तो दिन भर पलंग पर लेट कर आराम करने को था, लेकिन मेरे लिए उस दिन इतना अधिक काम था कि एक बार गांव पहुंचा, तो शाम 6:00 बजे तक दम मारने की भी फुर्सत नहीं मिली। शाम 6:45 बजे जब डाक बंगले लौटा, तब थकान से मेरी बुरी हालत थी। मैं बिस्तर पर लेटते ही सो गया।
नींद खुली तो मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कुर्सी पर 17 18 वर्ष का एक पहाड़ी लड़का बैठा था। वह मुझे जगा कर देख कर मुस्कुराया।
” क्या काम है? कितनी देर से यहां बैठे हो?”
” मुझे आपसे कोई काम नहीं है। आप अकेले थे, मैंने सोचा कि थोड़ी देर बात कर आपका जी वहलाऊंगा।“
” यह तो तुमने अच्छा किया। लेकिन, रात को अकेले आने में तुम्हें डर नहीं लगा।“
” मैं पास ही रहता हूं और अक्सर डाक बंगले में आता रहता हूं। यहां आने में डर की तो कोई बात ही नहीं है।“
” क्या तुम्हें बेतालघाट के भूत से भी डर नहीं लगता?”
उसने हंसकर जवाब दिया,” नहीं, मुझे किसी से भी डर नहीं लगता। लेकिन आपको भूत से क्यों डर लगता है? क्या किसी भूत ने आपको सताया है?”
” नहीं, नहीं, भूत ने मुझे बिल्कुल नहीं सताया है, लेकिन यहां का वातावरण बहुत अजीब सा है,”
” यह तो आप ठीक कहते हैं कि यहां का वातावरण अच्छा नहीं है, पर ऐसा हमेशा नहीं था। एक जमाने में बहुत खुशनुमा था, तभी तो यहां पर चंपा और दीपेश की प्रेम कहानी ने जन्म लिया।“
” चंपा और दीपेश की प्रेम कहानी ?” मैंने आश्चर्य से पूछा।
” कोई 37 वर्ष पूर्व इस डाक बंगले का चौकीदार कुंवर सिंह था। वह अपनी इकलौती लड़की चंपा के साथ रहता था। चंपा की उम्र करीब 16 वर्ष थी। वह जितनी सुंदर थी, उतनी ही गुणवती भी। उन्ही दिनों 19 बरस का दीपेश सुंदर, बांका जवान था। उसका अपना गांव काफी दूर था। उसके मां–बाप की मृत्यु हो गई थी। इसलिए वह अपने नाना नानी के घर यही चला आया था।
” दीपेश और चंपा में पहली मुलाकात में ही प्यार हो गया। कुंवर सिंह भी चंपा की शादी दीपेश से करने के लिए तैयार था। उसी समय नैनीताल के एक बड़े ठेकेदार ने हॉर्स के जंगलों में लकड़ी काटने का ठेका लिया और यह काम देखने के लिए अपने एक पुराने आदमी चरणदास को मैनेजर बनाकर बेतालघाट भेजा। उसे शराब और जुए की बुरी आदत थी। उसने ठेके के रूपों में से भी गबन किया था।
” चरणदास को जब ठेकेदार के आने का समाचार मिला, तब वह बहुत घबराया और अपने बचने के उपाय ढूंढने लगा। ठेकेदार साहब रंगीली तबीयत के आदमी थे। इसलिए चरण दास ने चंपा को अपने बचाव का हथियार बनाना चाहा। ठेकेदार साहब का डाक बंगले में ठहरने का प्रबंध किया
चरणदास को देखते ही ठेकेदार साहब बरस पड़े और तरह–तरह की गालियां निकालने लगे। चरण दास ने उनके पैर पकड उन्हें किसी तरह शांत किया। जबठेकेदार साहब कुछ ठंडे हुए , तब उन्होंने आस–पास नजर डालकर देखा कि यह जगह बड़ी सुंदर है। इतनी सुंदर जगह में अगर कोई रंगीली शाम मिल जाए तो कैसा हो, यह सोचते हुए वह पलंग पर लेट गए। थोड़ी देर बाद कुंवर सिंह उनके लिए चाय, नमकीन ले आया।
शाम होते–होते शराब के दौर पर दौर चलने लगे दास की लच्छेदार बातें। जब शराब का दौर शुरू हुआ, तब चरण दास ने अपने एक खास आदमी को दो विलायती बोतलें दे समझा बुझाकर कुंवर सिंह के पास भेजा।
आदमी कुंवर सिंह को अलग ले गया और कहा कि उसके काम से खुश होकर ठेकेदार साहब ने उसके लिए दो विलायती शराब की बोतलें भेजी हैं। विलायती शराब की बोतलें देखकर कुंवर सिंह अपने को रोक नहीं सका और दोनों बोतलें पी कर होश हवास खो बैठा।
” 8:00 बजे चरणदास स्वयं रसोई घर में पहुंचा और चंपा से बोला कि ठेकेदार साहब को खाना चाहिए और कुंवर सिंह का कहीं पता नहीं चल रहा है। चंपा ने जब कुंवर सिंह को ढूंढा, तब क्वार्टर में बेहोश होता पाया। उसकी इस हालत को देख चरण दास ने कहा कि खुद ही ठेकेदार साहब को खाना दे आए।
” बेचारी चंपा अपने बाप की नौकरी बचाने के लिए क्या नहीं करती? वह स्वयं ही खाना लेकर बंगले के अंदर जा पहुंची। चंपा को देख कर ठेकेदार साहब की लार टपकने लगी। चंपा कमरे से बाहर चली गई, तब चरण दास ने ठेकेदार साहब से कहा,” हुजूर, मैंने इसके बाप से मिलकर सब बातें कर ली।
” रात के 9:30 बजे रसोई घर बंद कर चंपा सोने के लिए अपने क्वार्टर जाने वाली ही थी कि चरण दास ने रसोई घर में आकर कहा कि ठेकेदार साहब को रात को दूध पीने की आदत है, वह एक गिलास उनके कमरे में दे आए
चंपा ने ऐसा ही किया। उस समय बंगले के आस पास और कोई नहीं था। चंपा दूध का गिलास मेज पर रख कर बाहर आने लगी की चरण दास ने कहा, गिलास ठेकेदार साहब के हाथ में दो। चंपा ने गिलास ठेकेदार साहब को पकड़ने के लिए आगे बढ़ाया।
उन्होंने एक हाथ से गिलास पकड़ा और दूसरे से कसकर उसकी कलाई पकड़ ली। चंपा का दिल बुरी तरह धड़कने लगा और उसके मुंह से एक चीख निकल गई। सारा जोर लगाकर उसने ठेकेदार साहब के हाथ से अपनी कलाई छुड़ाई और सामने के दरवाजे से निकलने को दौड़ी। लेकिन चरणदास तब तक दरवाजा बंद करके उसके आगे आ खड़ा हुआ था। चंपा को उसने ठेकेदार साहब की ओर धकेल दिया।
” थकी मांदी होने पर भी चंपा ने काफी देर तक अपनी लाज बचाने के लिए लड़ाई की और अंततः बेहोश होकर गिर पड़ी।
” बंगले पर एकत्र चरण दास के आदमियों में एक कन्हैया भी था, उसकी दीपेश से मित्रता थी। जब उसने चंपा की चीख सुनी, तब वह बहाना बना चरणदास के अन्य आदमियों से छुट्टी लेकर 3 मील दूर दीपेश के पास पहुंचा। दीपेश भागता हुआ डाक बंगले पहुंचा।
” चरणदास को देखते ही दीपेश उस पर बाज की तरह झपट पड़ा और उसका गला दबोचने लगा। तभी चरण दास के आदमियों ने पीछे से बड़ी जोर से उसके सिर पर लाठी के वार किए। दीपेश जमीन पर गिर गया। उसका सिर फूट गया था और कुछ ही क्षणों में उसके प्राण निकल गए। चरण दास ने दीपेश कैलाश कोसी नदी में फेंकवा दी
रात को 3:30 बजे चंपा को जब होश आया, तब वह बेहाल थी। उसके शरीर में हिलने तक की भी ताकत नहीं थी। फिर भी वह लड़खड़ाते कदमों से डाक बंगले के अहाते से निकल कर दीपेश के घर का रास्ता लेने वाली ही थी कि तभी कन्हैया ने सामने आकर उसे बताया, मैंने दीपेश को खबर दी थी और तुम्हें बचाने के लिए वह आया भी था। लेकिन, चरण दास के आदमियों ने उसे मार कर नदी में फेंक दिया है।
” चंपा ने जब यह सुना तो वह उल्टे पांव लौट गई। नदी में कूद पड़ी। मरकर उनका फिर से मिलन हो गया।“
चंपा और दीपेश की प्रेम कहानी सुनाकर लड़का चुप हो गया था। कुछ देर हम यूं ही बैठे रहे। चंपा और दीपेश की प्रेम कहानी ने मेरे हृदय को छू लिया था और ऐसा लगता था कि लड़के द्वारा मुझे स्वप्नलोक में पहुंचा दिया गया है। मैंने विस्मित होकर जब उससे पूछा,,” तुमको दीपेश तथा चंपा की प्रेम कहानी की इतनी प्रमाणिक जानकारी किसने दी?”
तो प्रत्युत्तर में मधुर मुस्कान बिखरते हुए उस लड़के ने कहा,” मैं ही तो वह दीपेश हूं,” और इस उत्तर के साथ ही वह अदृश्य हो गया।।।।
भूत प्रेत भी कई तरह के होते हैं कुछ अच्छे तो कुछ बेहद बुरे।।
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